जीवन एक दरिया जैसा,
लगातार है बहता रहता ।
बीत गया सो बीत गया,
समय हमेशा कहता रहता।
दरिया के पथ को देखो,
कभी ना होता एक समान ।
पर्वत मिलते पठार हैं मिलते,
मिलते कहीं समतल मैदान ।
शहरों में जब शांत सी बहती,
धीर -वीर गंभीर ही रहती।
कभी उंचाई से जब गिरती,
बूंदे झरती शोर है करती।
रुक जाना ही मर जाना है,
जीवन का पथ कभी न रुकता ।
सीधा हो या टेढ़ा-मेढ़ा,
लगातार ही बहता रहता ।
दरिया के पथ में कितने ही,
नए घाट हैं आते- जाते।
आज मिले कल बिछड़ गए,
होता सब यह हँसते-रोते।
नया सत्र था नया था चेहरा,
मिला था सबसे मित्र समान।
घुल-मिल कर वह खेल खेल में,
करता हर मुस्किल आसान।
हर मुश्किल में साथ खड़े हम,
सरल कठिन परवाह किये बिन।
छिन-छिन हंसकर बीत गए जो,
आखिर क्या थे वो भी दिन।
कहे रजनीश दरिया को,
अंत में सागर में मिल जाना।
बीत गया सो बीत गया,
रे मन उसका क्या पछताना ।
"रचयिता :रजनीश शुक्ला, रीवा (म.प्र.)"
*Photo by Dinesh Chandra Varshney for Bharat Nav Nirman Only
2 comments:
Deepak Vishwkarma,
Scientist DRDO:
achhi kavita hai...kavi mahodaya...lagta hai aapke kisi khaas dost ko samarpit hai...
Shailu ke liye to nahin hai...???
Acha prayaas hai, badhai!
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