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Saturday, March 27, 2010
शब्दों में कुछ उलझा जीवन ...
रचयिता: विवेक सेंगर ,
अतिथि लेखक,
भारत नव निर्माण (Evoling New Iandia)
शब्दों में कुछ उलझा जीवन, कटु सम्मोहन व्यथा अदिश है।
राह सरल पर दिशा अवकलित, कर्म अकारथ अतुल विदित है।
[ ये जीवन लोगों क़ी बातें सुन सुन के कुछ ऐसा उलझा गया है क़ी इसमें हम काम तो करते हैं पर बिना किसी दिशा के । ये सब करने से हमारा काम तो आसान हो गया है, पर दिशा का पता ही नही चलता क़ी हम काम क्या करते हैं और क्यों ?अपने मन के लिए या बस जीने के लिए, ये सब किया गया काम दिखता तो बहुत है पर मेरे लिए ये निरर्थक है। उदहारण के लिए मै एक अच्छा गायक हूँ पर मै गायन कभी नही करता। मुझे लगता है की ज्यादा पैसा सॉफ्टवेर इंजीनियर बनने में है तो मै वही करता हूँ ]
सम्मोहन की निरह धुरी पर, कुछ लिखता कुछ सोच रहा मै।
मायापन की राह टटोलत, लक्ष्य सधा पर राह भ्रमित है।
राह सरल पर दिशा अवकलित, कर्म अकारथ अतुल विदित है ।
[दुनिया के इसी सम्मोहन को देख के मै मै कुछ सोचते हुए लिखता हूँ, तो मुझे समझ आता है क़ी मै अपने लक्ष्य को तो जानता हूँ, पर उसके लिए मुझे क्या करना चाहिए ये नही समझ पाता। ये सब करने से हमारा काम तो आसान हो गया है, पर दिशा का पता ही नही चलता ....]
ओजों क़ी इश मृगतृष्णा में, है विवेक कुछ अतिव्यापित सा ।
अर्थों का ये दंस निरंतर, है कुछ कलुषित कुछ श्रापित सा।
अज़ा सलीखे सज़र छाव , मै अल्प निहारत स्वल्प भ्रमित है।
राह सरल पर दिशा अवकलित , कर्म अकारथ अतुल विदित है।
[इस दुनिया क़ी बड़ी-बड़ी बातें सुनकर जो क़ी संसार क़ी मृगतृष्णा है, मेरा मन बहुत सी चीजों में उलझ के रह गया है । और दुनिया क़ी ऐसी ही बड़ी-बड़ी बातें और कहानियां कुछ धोखे से और दूषित से लगते है, जिन्हें देख के मुझे लगता है क़ी मै बेकार हूँ और इस मृत्यु क़ी तरह बने संसार और जीवन में मै कुछ तो देख पाता हूँ, पर बहुत कुछ नही देख पाता। ऐसा जीवन जीनें में तो आसन है पर मै कभी अपने मन क़ी गति को कभी नही समझ पाउँगा और मेरा काम तो दिखाई देगा पर वो मैंने क्यों किया कभी नही समझ पाउँगा। ]
कभी चाह बैठा है मै मन , है अस्तित्व जताने बैठा।
रूपक को क्यों साथ लिए मै, हर व्यक्तित्व बताने बैठा।
डरा हुआ कुछ सहमा सा पर , जीवन का एक सत्य निहित है।
राह सरल पर दिशा अवकलित , कर्म अकारथ अतुल विदित है।
[कभी-कभी मै अपने को हारा मानने लगता हूँ , तो मै अपने भूत क़ी बाते करने लगता हूँ की मैंने ये किया था, मै यहाँ का टोपर था। मैंने यहाँ रैंक लगायी थी । मुझसे ये आता था वो आता था । कुल मिला के मै अपने आप को समझाने लगता हूँ । संक्षेप में मै बार- बार हर चीज में दुनिया के लोगों से अपने आप क़ी तुलना करने लगता हूँ , शायद यही हालत मेरे मन क़ी है और इसी में मेरे जीवन का सत्य छिपा है।]
कुछ ताके ये चक्षु विकल से , क्या जाने ये गिनते क्या हैं।
अज़ा अटल विपरीत राह में , दूर खड़ी और देखे मुझको।
मेरा प्रभु भी देख मुझे , फिर हँसता देख नियोजन में है।
जान रहा वो निरंकार का , अर्थ व्यथा संवेदन में है।
पात्र बना वो कठपुतली का , खेल खिलाता व्यक्ति सदिस है।
शब्दों में कुछ उलझा जीवन , कटु सम्मोहन व्यथा अदिश है।
राह सरल पर दिशा अवकलित , कर्म अकारथ अतुल विदित है।
[बहुत समय बीत गया पर अभी भी मै अपने आप को बदल नही पाया। रोज आने वाली तारीखों को पता नही क्यों मेरा मेरी आँखें गिनती क़ी तरह गिनती है ।इसी गिनती को गिनते गिनते मै एक दिन इश दुनिया से चला जाउंगा ।जिस राह से मै इस तारीख क़ी आगे बढ़ रहा हूँ, उसी राह में मेरी मृत्युसामने से आ रही है। भगवान् भी मुझे देख के हर योजना पे हसने लगता है वो भी इस लिए क़ी उसे तो पता है क़ी इसका परिणाम क्या है ।फिर ये मुर्ख किसे धोखा दे रहा है। मै (भगवान्) जानता हूँ क़ी ऐसा नही होगा पर ये मुर्ख ये सब किये जा रहा है ।शायद कुछ इसी तरह से मुझसे ये सब करवाने वाला व्यक्ति (भगवान्) करता है ।इस दुनिया को ज्यादा अच्छे से जानता है ।शायद उसने हमारा उपयोग किया है जैसे कोई मेनेजर बिना किसी क़ी कला और रूचि को जाने बिना उससे वो काम करवाता है जो उसके मतलब का होता है। बस इसी मानसक स्थिति से प्रेरित हो के ये कविता मैंने लिखी है। शब्दों में कुछ उलझा जीवन ...कटु सम्मोहन व्यथा अदिश है....राह सरल पर दिशा अवकलित ... कर्म अकारथ अतुल विदित है।]
Saturday, March 20, 2010
हम अपना अधिकार मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते
आज दिनांक १९ मार्च २०१० को समय ११ बजे सुबह से २ बजे शाम तक स्थान शहीद स्मारक लखनऊ जन आन्दोलनों का रास्ट्रीय समन्वय एवं आशा परिवार के बैनर तले एक दिवसीय धरना संपन्न हुआ। यह धरना आम जनता के मौलिक अधिकारों कों लागू करने की मांग हेतु आयोजित किया गया था। इस धरने को लखनऊ की गरीब बस्तियों में रह रहे लोगों ने अपने अधिकारों की मांग के लिए स्वयं रखा था। इस धरने में मैग्सेसे पुरष्कार के विजेता सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय सहित करीब २५०-३०० लोगों ने भाग लिया। धरना करना आम जनता की मजबूरी बन गया है, क्योंकि स्वतंत्र एवं लोकतंत्र भारत में आज भी आम जनता अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है। सरकारी कागजों पर भले ही जनता के मौलिक अधिकार सरकार ने दे दिए हों लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आम आदमी आज भी गरीबी, भुखमरी, आश्रयहीन, अशिक्षा, महगाई, बिमारी असुरक्षा का शिकार है। इस स्वतंत्र भारत की आधी से अधिक जनता के लिए अधिकारों की बात तो दूर, दो वक़्त की रोटी और सिर के ऊपर छत भी नसीब नहीं हो पा रही है। सरकार की जितनी भी कल्याणकारी योजनायें चलायी जा रहीं हैं उनमें से किसी भी योजना का लाभ पात्र व्यक्ति को नहीं मिल पा रहा है । चाहे वह इंदिरा आवाश हो , चाहे पेंसन हो , चाहे शहरी गरीब आवास हों, चाहे वह शिक्षा हो ,चाहे एल. डी. ए. की आश्रय हीन योजना हो, चाहे वह काशीराम शहरी गरीब आवास हो, चाहे स्वास्थ्य संबंधी योजना हो, चाहे बी. पी. एल. राशन कार्ड हो, चाहे शहरी रोजगार संबंधी योजना हो, चाहे पुलिश सुरक्षा हो, चाहे सुरक्षा का अधिकार हो आदि। सबसे अहम् बात तो यह है कि इनमें मौलिक अधिकारों के लिए ही विभाग बनाये गए हैं और उन विभागों में जनता की सेवा के लिए ही कर्मचारी नियुक्त किये गए हैं । कर्मचारियों के वेतन से लेकर सभी सरकारी खर्च स्वयम जनता के पैसे से किये जाते हैं । एक हिसाब से देखा जाये तो जनता और कर्मचारियों के बीच एक मालिक और नौकर का रिश्ता है । जहाँ जनता मालिक और सरकारी कर्मचारी नौकर है । सरकार और सरकारी कर्मचारियों को जनता से पूछना चाहिए की आपका पैसा है वह हम लोग किस काम और विकास में खर्च करें ? विकास का बजट आम लोग बना कर दें । लेकिन हो उलटा रहा है, यहाँ सरकार अपनी इच्छा अनुसार कुछ भी योजनायें बनाती है और जबरदस्ती उसे जनता पर लाद देती है।अब सवाल यह है कि जिसका पैसा है और जिसके लिए योजनायें बन रही हैं उससे पूछने की जरूरत ही नहीं समझी जाती है । सरकार को पूरी जानकारी होती है कि कहाँ गड़बड़ी हो रही है और कौन इन योजनावों का लाभ पा रहा है । लेकिन इस पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है । अब यह देखिये कि जो मेहनत का काम करता है उसके लिए सिर्फ १०० रुपये मजदूरी और साल में १०० दिन का काम, बाकी दिन? समान शिक्षा अधिनियम तो आ गया लेकिन आज भी गरीब का बच्चा वही सरकारी स्कूलों में जाता है जहाँ कि शिक्षा व्यवस्था पर हर कोई रोता है और अपने बच्चों को इसमें पढ़ाना नहीं चाहता है । और करे भी क्या? प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने के लिए उनके पास इतना पैसा नहीं है और आई. ए. एस. , पी. सी. एस. तथा नेता का बच्चा कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ता है क्योंकि वो पैसे वाले हैं।अब सरकारी शहरी गरीब आवास उन लोंगो को मिल जाते हैं जिनकी सरकार में पकड़ है, पैसा है ।अब आज की स्तिथि यह है कि नौकरशाह वर्ग जितना अमीर होता जा रहा है, गरीब उतना ही गरीब होता जा रहा है। इन्ही सब मुद्दों के लिए यह धरना दिया गया जनता की निम्नलिखित मांगे थी:
१) हमारे लिए समान शिक्षा प्रणाली वा पड़ोस के स्कूल की अवधारणा लागू हो ।
२)प्राइवेट स्कूलों में २५ प्रतिशत गरीब बच्चों की शिक्षा का नियम लागू किया जाए ।
३) हमारे लिए स्वास्थ्य चिकित्साएँ निःशुल्क वा सहजता से उपलब्ध हों ।
४)हमारे लिए ३६५ दिन का रोजगार मिले ।
५)मेहनतकश वर्ग को छठे वेतनआयोग में शामिल किया जाये ।
६)बाजार में चीजों की कीमतें गरीब वर्ग को ध्यान में रखकर तय की जाएँ ।
७)जिनके पास न हो उन्हें राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र जारी किये जाएँ और शहरी गरीब खाते बैंकों में बिना किसी न्यूनतम राशि के खोले जायें ।
इन मांगो को जनता ने विरोध और नारों के साथ उठाया ।
नारे :
१)हम अपना अधिकार मांगते, नहीं किसी से भीख मांगते ।
२)शहरी गरीबी आवाश हमारे लिए नहीं तो किसके लिए?
३)छठा वेतन आयोग उनके लिए तो, महगाई हमारे लिए क्यूं?
४)शिक्षा नहीं कोई कारोबार, यह है जनता का अधिकार ।
५)समान शिक्षा का अधिकार, मांग रहा है हिन्दुस्तान ।
६) निःशुल्क शिक्षा हमारा अधिकार- हमारा अधिकार- हमारा अधिकार ।
७)जब तक दुखी किसान रहेगा, धरती पर तूफ़ान रहेगा ।
८)देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है ।
९)हमारा पैसा, हमारा हिसाब ।
इस धरने का नेतृत्व सामाजिक कार्यकर्ता और आशा परिवार के जिला समन्वयक चुनीलाल ने किया ।
लेखक: चुनीलाल,
सामाजिक कार्यकर्ता
निवासी: अमृत खेड़ा, पो. उमरावल, तहसील-मलीहाबाद, जिला-लखनऊ २२७११५
मो.-9839422521 Email: chunnilallko@gmail.com
*Photo by Dinesh Chandra Varshney for Bharat Nav Nirman Only